आगरा दलित वर्ग की राजधानी भी कहलाता है। बसपा प्रमुख मायावती ने सदैव अपनी पहली चुनावी सभा आगरा से ही शुरू की है क्योंकि वह आगरा को बसपा के लिए लकी जिला मानती हैं।

लेकिन यह सोचनीय बात है कि जो आगरा के लोग सदैव मायावती के साथ रहते हुए उनके गुणगान गाते दिखाई देते थे और हाथी पर चढ़कर विधानसभा तक पहुँच गए थे, आखिर वह वर्तमान में हाथी से दूर क्यों हैं?

बसपा के एक वरिष्ठ नेता ने यह सवाल उठाते हुए उदाहरण दिया कि रामवीर उपाध्याय को बसपा ने टिकट दिया जिसपर जीतकर वो उत्तर प्रदेश सरकार में मातृ बने और उनकी पत्नी सीमा उपाध्याय भी सांसद बनीं।  उसी तरह एत्मादपुर से बसपा की सीट पर ही जीतकर ठाकुर सूरजपाल सिंह, खेरागढ़ से बसपा के टिकट पर जीतकर भगवान सिंह कुशवाह, फतेहबद्ध से छोटेलाल वर्मा, बाह से नारायण सिंह सुमन केबिनेट मंत्री तक बने। वर्तमान में सुमन और सूरजपाल सिंह का देहांत हो चुका है और बाकी सब भाजपा का झंडा उठाये हुए हैं। बसपा से विधायक बने ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो पूरी तरह सियासत से किनारा कर चुके हैं।

विचारणीय प्रश्न यह है कि आखिर यह सारे विधायक मायावती से दूर क्यों हुए। इस सम्बन्ध में सामजिक कार्यकर्ता एवं दलित विचारक राजकुमार नागरथ का कहना है कि 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने वाली बहुजन समाज पार्टी में जितने पुराने चेहरे थे, आज लगभग सभी गायब हैं। वे चेहरे जो कभी आगरा में बसपा संगठन की रीढ़ माने जाते थे, उनमें से अधिकतर आजकल एकदन ठन्डे पद चुके हैं। बसपा के समर्थन से मेयर का चुनाव लड़ चुके दिगंबर सिंह धाकरे आजकल भाजपा में शामिल होकर केंद्रीय मंत्री एस पी सिंह बघेल के करीबियों में गिने जाते हैं। 

राजनीतिक हलकों में यह चर्चा आम है कि कई शीर्ष बसपा नेताओं को जहाँ खुद पार्टी प्रमुख मायावती ने बाहर का रास्ता दिखाया, वहीं कई के लिए हालात ही ऐसे बना दिए गए कि उनके लिए बसपा में रहना ही मुश्किल हो गया और वे स्वयं ही पार्टी से किनारा कर गए। चुनाव तिथि की घोषणा के साथ जहाँ कुछ पुराने चेहरे बसपा में वापस आ सकते हैं, वहीं अधिकतर चेहरे अब भाजपा और सपा की शान बढ़ा रहे हैं। 

बसपा से मोहभंग कर चुके कई नेताओं ने बताया कि बसपा में बने रहने के लिए भी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, जो एक समय के बाद उनके लिए संभव नहीं था। उन्होंने कहा कि ऎसी राजनीती काने का क्या फायदा कि बच्चों के हाथ में भीख का कटोरा देना पड़े। बसपा के इन नेताओं की बात से समझा जा सकता है कि अधिकतर बसपा नेता उसी कारण से बसपा से किनारा करके गए, जिस कारण से एक समय बसपा प्रमुख मायावती के दाहिने हाथ समझे जाने वाले नसीमुद्दीन सिद्दीकी गए थे।

जानकार बताते हैं कि जिस स्तर पर बसपा में टूट हुई है, उसके बाद इस पार्टी का दुबारा पुराने रूप में वापस खड़ा होना लगभग असंभव है। बसपा प्रमुख मायावती को इस टूट का जिम्मेदार बताते हुए राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि बसपा में टिकट देने के नाम पर पैसे के लेन-देन की बात किसी से छिपी नहीं है। नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने बसपा छोड़ते समय पार्टी प्रमुख मायावती पर जो आरोप लगाए थे, कई अन्य नेता भी लगभग वैसे ही आरोप लगा कर पार्टी से अलग हुए हैं। ऐसे में इस पार्टी को दोबारा खड़ा करने के लिए मायावती को कड़ी मेहनत करनी होगी और दलित नेताओं का विश्वास जीतना पड़ेगा, क्योंकि दलित नेता चंद्रशेखर रावण ने उनके वोट बैंक में काफी गहराई तक सेंध लगा ली है।      

    

S Qureshi