हम सब झांसी की रानी को जानते हैं। अपने पाठ्यपुस्तकों में उनकी वीरता की गाथा पढ़ी है। तभी तो, अगर आज भी कहीं “खूब लड़ी मर्दानी”, यह पंक्ति सुनते हैं, तो आगे की कविता अपने आप याद आ जाती है। यह रानी लक्ष्मी बाई के अभूतपूर्व शौर्य का ही परिणाम है, कि आज भारत के बच्चे-बच्चे की वाणी पर उनका नाम है। भारत की सुप्त प्राण चेतना को जगाने वाली, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की आज पुण्यतिथि है। उनका कृतित्व सदा के लिए भारतीयों के हृदय पटल पर अंकित हो गया है। आइये, रानी लक्ष्मी बाई की पुण्यतिथि पर, अदम्य साहस से भरी उनकी जीवनयात्रा का परिचय पाते हैं।
काशी में जन्मी लक्ष्मी बाई
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को काशी में हुआ। उनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। लक्ष्मीबाई के बचपन का नाम मणिकर्णिका था। उन्हें प्यार से मनु कहकर संबोधित किया जाता था। बाल्यकाल में ही मनु की माता का निधन हो गया। मनु के पिता बिठूर के पेशवा साहेब के यहां काम करते थे। पेशवा साहेब ने मनु को अपनी बेटी की तरह पाला। उन्होंने मनु को छबीली नाम दिया। बचपन से ही मनु शस्त्र-शास्त्र की शिक्षा लेने लगी थी। नाना साहेब और तात्या टोपे के निर्देशन में वे घुड़सवारी और तलवारबाजी में निपुण हो गईं थी।
झांसी नरेश से हुआ विवाह
वर्ष 1842 में झांसी नरेश , गंगाधर राव से मनु का विवाह हुआ। उस समय मनु की उम्र 12 वर्ष थी। इसके बाद ही उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। विवाह के कुछ समय बाद उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया। उनका पुत्र कुछ माह जीवित रहा और फिर चल बसा। इस घटना के बाद झांसी नरेश ने अपने छोटे भाई के पुत्र को गोद लिया और उसे नाम दिया : दामोदर राव। हालांकि प्रथम पुत्र की मृत्यु के बाद राजा गंगाधर अत्यंत शोकमग्न हो गए। गिरते स्वास्थ्य के कारण उन्होंने शैय्या पकड़ ली। कुछ समय बाद झांसी नरेश की मृत्यु हो गई और राज्य प्रबंधन का उत्तरदायित्व रानी लक्ष्मीबाई के हिस्से आया, जिसका उन्होंने कुशलता पूर्वक निर्वाह किया।
जीते जी अंग्रेजों को झांसी नहीं देने वाली रानी
रानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेजों को स्पष्ट शब्दों में बता दिया था कि, मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी। यह रानी लक्ष्मी बाई के कोरे वचन नहीं थे, बल्कि प्रतिज्ञा थी। अपने अंतिम सांस तक रानी ने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी। घटनाक्रम देखें तो ज्ञात होता है कि,उस समय अंग्रेज, राजाओं के दत्तक पुत्रों को स्वीकार्यता नहीं दे रहे थे। ऐसे राज्य, जहां किसी राजा ने संतान गोद लेकर, उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है, वहां राजा की मृत्यु के बाद समस्त राज्य संचालन और प्रबंधन अंग्रेजों के हाथ में आ जाता था। अंग्रेज दत्तक संतान को उत्तराधिकारी मानने को तैयार ही न होते थे। अंग्रेजों ने इसी नीति के तहत, झांसी को ब्रिटिश साम्राज्य में विलय का आदेश दिया और रानी को पेंशन देने का आश्वासन दिया। रानी लक्ष्मीबाई इस अनुबंध के लिए किसी भी तरह से तैयार नहीं हुईं। उनकी एक ही प्रतिज्ञा थी, झांसी की स्वतंत्रता की रक्षा।
ब्रिटिश फौज के साथ युद्ध
रानी लक्ष्मीबाई ने सात दिन तक वीरतापूर्वक झांसी की सुरक्षा की। अपनी छोटी-सी सशस्त्र सेना से अंग्रेजों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया। वे अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को बांधकर, घोड़े पर सवार हो, अंग्रेजों से युद्ध करती रहीं। बहुत दिन तक युद्ध का क्रम इस प्रकार चलना असंभव था। सरदारों का आग्रह मानकर रानी ने कालपी प्रस्थान किया। वहां जाकर , तात्या टोपे और नाना साहेब के सहयोग से उन्होंने ग्वालियर के किले पर विजय प्राप्त की। कुछ दिनों बाद जनरल स्मिथ और मेजर रूल्स अपनी सेना के साथ संपूर्ण शक्ति से रानी का पीछा करते हुए, ग्वालियर पहुंचे। घनघोर युद्ध हुआ। रानी लक्ष्मी बाई ने इस युद्ध में भी वीरता का परिचय दिया। 17 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई का निधन हो गया।
कृतज्ञ राष्ट्र की स्मृति में रानी लक्ष्मी बाई
जाओ रानी याद रखेंगे, ये कृतज्ञ भारतवासी
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
रानी लक्ष्मी बाई पर लिखी सुभद्राकुमारी चौहान की कालजयी कविता के माध्यम से, प्रत्येक व्यक्ति रानी की वीरता को कृतज्ञता पूर्ण प्रणाम करता है। मातृभूमि के प्रति रानी के त्याग और शौर्य ने, हजारों लोगों में स्वतंत्रता की अलख जगाई। अनेकानेक महिलाएं जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया, रानी लक्ष्मी बाई ही उनकी आदर्श थी। वैयक्तिक, सामाजिक या राष्ट्रीय जीवन में, किसी भी दुष्कर कार्य को पूर्ण करने में, रानी लक्ष्मी बाई के साहस का स्मरण, अनेकानेक लोगों को प्रेरणा देता है।